बचपन में हर कोई A फॉर एप्पल और B फॉर बॉल से अपनी पढ़ाई शुरू करता है, लेकिन इंडिपेंडेंट की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है कि अफगानिस्तान में तालिबान बच्चों को कैसे बचपन से ही आतंकवाद की तरफ धकेल रहा है। मदरसों में बच्चों को A फॉर अहमद, J फॉर जिहाद और G फॉर गन पढ़ाया जाता है, जिससे उनकी नींव में ही कट्टरता के बीज बो दिए जाते हैं।
रिपोर्ट में मैवंद बनेयी नामक एक व्यक्ति की कहानी सुनाई गई है, जिसे तालिबान का सुसाइड बॉम्बर बनने के लिए तैयार किया गया था, लेकिन किसी तरह वह बच निकला। बनेयी ने तालिबान की इस कट्टरपंथी शिक्षा प्रणाली को लेकर कई बड़े राज खोले हैं।
आत्मघाती हमलावर से फिजियोथेरेपिस्ट तक
मैवंद बनेयी का बचपन उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान के एक शरणार्थी कैंप में बीता, जहाँ वह अफगान गृहयुद्ध से बचकर आए अपने परिवार के साथ रहते थे और मदरसे में पढ़ते थे। आज, लगभग तीन दशक बाद, बनेयी इंग्लैंड के उत्तरी हिस्से में एनएचएस की एक फिजियोथेरेपी क्लिनिक में काम करते हैं।
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बदला जीवन: बनेयी कहते हैं, आज जिन हाथों से वह लोगों का दर्द कम करते हैं, उन्हीं हाथों ने कभी AK-47 थामी थी।
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आरंभिक कट्टरता: काबुल के एक गरीब मोहल्ले में जन्मे बनेयी की शुरुआती यादें सोवियत कब्जे के दिनों की हैं। उन्होंने बताया कि मदरसों में उन्हें शहीदों का महिमामंडन करना सिखाया जाता था और सुसाइड बॉम्बर हीरो माने जाते थे।
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ख्वाहिश: 1996 तक, जब तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया, बनेयी लड़ने की इच्छा से भरे थे। उनकी सबसे बड़ी ख्वाहिश शहादत थी।
मदरसों में लाखों बच्चों को किया जा रहा तैयार
बनेयी को एक आत्मघाती हमलावर बनने के लिए तैयार किया जा रहा था, लेकिन वह भाग निकलने में सफल रहे। वह चेतावनी देते हैं कि आज अफगानिस्तान में लगभग 70 लाख बच्चे मदरसों में पढ़ रहे हैं।
"मेरी तरह लाखों बच्चे अभी मदरसों में तैयार किए जा रहे हैं। उनमें से कई आगे चलकर कट्टरपंथी बन सकते हैं।"
अल-कायदा और तालिबान का उदय
बनेयी का परिवार गृहयुद्ध से बचने के लिए पाकिस्तान भागा और पेशावर के पास शमशातू शरणार्थी शिविर में बसा। यह वही जगह थी जहाँ ओसामा बिन लादेन अल-कायदा के लिए लड़ाकों की भर्ती करता था। बनेयी को याद है कि सोवियत सेना की वापसी तक अफगानिस्तान में मदरसों की संख्या 700 से बढ़कर लगभग 35 हजार हो गई थी।
गृहयुद्ध की राख से ही तालिबान ('छात्र' का अर्थ) उभरा, जिसकी अगुवाई मौलवी मुल्ला उमर कर रहे थे। बनेयी तो दारुल उलूम हक्कानिया में दाखिला चाहते थे—यह वही यूनिवर्सिटी है जहाँ से कई तालिबान नेता निकले हैं—और वह तब तक बंदूक चलाना और रॉकेट लॉन्चर इस्तेमाल करना सीख चुके थे।
बदलाव और पलायन
तालिबान में आधिकारिक रूप से शामिल होने की यात्रा में कई बार उनके मन में सवाल खड़े हुए। बनेयी की जिंदगी तब बदली जब उनके पिता ने उनका दाखिला एक सेक्युलर स्कूल में करा दिया। धीरे-धीरे मिली शिक्षा ने उनकी सोच को धार्मिक कट्टरता को चुनौती देने के लिए मजबूर कर दिया। अंततः, साल 2001 में वह ब्रिटेन भागने में कामयाब हो पाए, जहाँ हथियार उठाने वाले उनके हाथ आज लोगों के इलाज में लगे हैं।